• Rashmirathi Saptam Sarg part -2 रश्मीरथी सप्तम सर्ग-भाग २ by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra Karn ka Mahaprayan

  • Oct 8 2021
  • Duración: 44 m
  • Podcast

Rashmirathi Saptam Sarg part -2 रश्मीरथी सप्तम सर्ग-भाग २ by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra Karn ka Mahaprayan

  • Resumen

  • रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल,कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल ।बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह,उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक-समूह ।हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर, दन्तावल का वृहित अपार,टंकार धुनुर्गुण की भीम, दुर्मद रणशूरों की पुकार ।खलमला उठा ऊपर खगोल, कलमला उठा पृथ्वी का तन,सन-सन कर उड़ने लगे विशिख, झनझना उठी असियाँ झनझन ।तालोच्च-तरंगावृत बुभुक्षु-सा लहर उठा संगर-समुद्र,या पहन ध्वंस की लपट लगा नाचने समर में स्वयं रुद्र ।हैं कहाँ इन्द्र ? देखें, कितना प्रज्वलित मर्त्य जन होता है ?सुरपति से छले हुए नर का कैसा प्रचण्ड रण होता है ?अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण,सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण ।यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश,हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश ।भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण,भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !'रण में क्यों आये आज ?' लोग मन-ही-मन में पछताते थे,दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे ।काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण ।सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण ।अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह;कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह ।गरजा अशङक हो कर्ण, 'शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं,कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं ।बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके,लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके ।इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज,टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज ।लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया ।भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव,कौतुक से बोला, 'महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव ।हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं ।आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं ।'हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में,क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,जाइये, नहीं ...
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