• Dhela | Uday Prakash

  • Aug 13 2024
  • Duración: 4 m
  • Podcast

  • Resumen

  • ढेला | उदय प्रकाश


    वह था क्या एक ढेला था

    कहीं दूर गाँव-देहात से फिंका चला आया था

    दिल्ली की ओर

    रोता था कड़कड़डूमा, मंगोलपुरी, पटपड़गंज में

    खून के आँसू चुपचाप

    ढेले की स्मृति में सिर्फ़ बचपन की घास थी

    जिसका हरापन दिल्ली में हर साल

    और हरा होता था

    एक दिन ढेला देख ही लिया गया राजधानी में

    लोग-बाग चौंके कि ये तो कैसा ढेला है।

    कि रोता भी है आदमी लोगों की तरह

    दया भी उपजी कुछ के भीतर

    कुछ ने कहा कैसे क्या तो करें इसका

    नौकरी पर रखें तो क्या पता किसी का

    सर ही फोड़ दे

    ज़्यादातर काँच की हैं दीवारें और इतने कीमती

    इलेक्ट्रॉनिक आइटम

    कुछ ने कहा विश्वसनीयता का भी प्रश्न है

    ढेले की जात कब किस दिशा को लुढ़क जाए

    क्या पता किसी बारिश में ही घुल जाए

    एक दिन एक लड़की ने पढ़ी ढेले की कविता

    और फिर

    आया उसे खुब ज़ोर का रोना

    ढेला भीतर से काँपा कि आया उसके भी

    जीवन में प्यार

    आखिरकार

    उस रात उसने रात भर जाग-जागकर लिखी

    एक कविता

    कि दिल्ली में भी है

    दुनिया के सबसे बड़े बैलून से भी ज़्यादा बड़ा

    एक दिल

    जहाँ एक दिन फिरा करते हैं ढेलों के भी दिन

    लेकिन अगले दिन वह भागा

    और फिर भागता ही रहा

    जब लड़की ने अपने प्रेमी से कहा-

    'सँभालकर उठाओ और रख दो इस बेचारे को

    गुड़गाँव के किसी खेत में

    या टिकट देकर चढ़ा दो छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस में

    और भूल जाओ

    उसी तरह जैसे राजधानी की सड़क पर हर रोज़

    हम भूल जाते हैं कोई- न-कोई

    दहशतनाक दुर्घटना'

    आदमी लोगों, सुनो!

    इस ढेले के भी हैं कुछ विचार

    ढेले को भी करनी है बाज़ार में ख़रीदारी

    इस कठिन समय में ढेले का सोचना है

    उसको भी निभानी है कोई भूमिका

    भाई, कोई है ?

    कोई सुनेगा ढेले का मूल्यवान प्रवचन

    कोई अखबार छापेगा

    लोकतंत्र और मनुष्यता के संकट पर

    ढेले के विचार?

    भाई, कोई है,

    जो उसे उठाये

    उस तरह जिस तरह नहीं उठाया जाता कोई ढेला?

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