Episodios

  • Ichhaon Ka Ghar | Anjana Bhatt
    Aug 16 2024

    इच्छाओं का घर | अंजना भट्ट


    इच्छाओं का घर- कहाँ है?

    क्या है मेरा मन या मस्तिष्क या फिर मेरी सुप्त चेतना?

    इच्छाएं हैं भरपूर, जोरदार और कुछ मजबूर

    पर किसने दी हैं ये इच्छाएं?

    क्या पिछले जन्मों से चल कर आयीं

    या शायद फिर प्रभु ने ही हैं मन में समाईं?

    पर क्यों हैं और क्या हैं ये इच्छाएं?

    क्या इच्छाएं मार डालूँ?

    या फिर उन पर काबू पा लूं?

    और यदि हाँ तो भी क्यों?

    जब प्रभु की कृपा से हैं मन में समाईं?

    तो फिर क्या है उनमें बुराई?


    Más Menos
    2 m
  • Swadesh Ke Prati | Subhadra Kumari Chauhan
    Aug 15 2024

    स्वदेश के प्रति / सुभद्राकुमारी चौहान


    आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,

    स्वागत करती हूँ तेरा।

    तुझे देखकर आज हो रहा,

    दूना प्रमुदित मन मेरा॥


    आ, उस बालक के समान

    जो है गुरुता का अधिकारी।

    आ, उस युवक-वीर सा जिसको

    विपदाएं ही हैं प्यारी॥


    आ, उस सेवक के समान तू

    विनय-शील अनुगामी सा।

    अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में

    कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥


    आशा की सूखी लतिकाएं

    तुझको पा, फिर लहराईं।

    अत्याचारी की कृतियों को

    निर्भयता से दरसाईं॥

    Más Menos
    2 m
  • Apni Devnagri Lipi | Kedarnath Singh
    Aug 14 2024

    अपनी देवनागरी लिपि | केदारनाथ सिंह


    यह जो सीधी-सी, सरल-सी

    अपनी लिपि है देवनागरी

    इतनी सरल है

    कि भूल गई है अपना सारा अतीत

    पर मेरा ख़याल है

    'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले

    नहीं आया था दुनिया में

    'च' पैदा हुआ होगा

    किसी शिशु के गाल पर

    माँ के चुम्बन से!

    'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं

    कि फूट पड़े होंगे

    किसी पत्थर को फोड़कर

    'न' एक स्थायी प्रतिरोध है

    हर अन्याय का

    'म' एक पशु के रँभाने की आवाज़

    जो किसी कंठ से छनकर

    बन गयी होगी “माँ"!

    स' के संगीत में

    संभव है एक हल्की-सी सिसकी

    सुनाई पड़े तुम्हें।

    हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे

    किसी लिखते हुए हाथ की

    तकलीफ़ दबी हो

    कभी देखना ध्यान से

    किसी अक्षर में झाँककर

    वहाँ रोशनाई के तल में

    एक ज़रा-सी रोशनी

    तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी।

    यह मेरे लोगों का उल्लास है

    जो ढल गया है मात्राओं में।

    अनुस्वार में उतर आया है

    कोई कंठावरोध!

    पर कौन कह सकता है

    इसके अंतिम वर्ण 'ह' में

    कितनी हँसी है

    कितना हाहाकार !


    Más Menos
    2 m
  • Dhela | Uday Prakash
    Aug 13 2024

    ढेला | उदय प्रकाश


    वह था क्या एक ढेला था

    कहीं दूर गाँव-देहात से फिंका चला आया था

    दिल्ली की ओर

    रोता था कड़कड़डूमा, मंगोलपुरी, पटपड़गंज में

    खून के आँसू चुपचाप

    ढेले की स्मृति में सिर्फ़ बचपन की घास थी

    जिसका हरापन दिल्ली में हर साल

    और हरा होता था

    एक दिन ढेला देख ही लिया गया राजधानी में

    लोग-बाग चौंके कि ये तो कैसा ढेला है।

    कि रोता भी है आदमी लोगों की तरह

    दया भी उपजी कुछ के भीतर

    कुछ ने कहा कैसे क्या तो करें इसका

    नौकरी पर रखें तो क्या पता किसी का

    सर ही फोड़ दे

    ज़्यादातर काँच की हैं दीवारें और इतने कीमती

    इलेक्ट्रॉनिक आइटम

    कुछ ने कहा विश्वसनीयता का भी प्रश्न है

    ढेले की जात कब किस दिशा को लुढ़क जाए

    क्या पता किसी बारिश में ही घुल जाए

    एक दिन एक लड़की ने पढ़ी ढेले की कविता

    और फिर

    आया उसे खुब ज़ोर का रोना

    ढेला भीतर से काँपा कि आया उसके भी

    जीवन में प्यार

    आखिरकार

    उस रात उसने रात भर जाग-जागकर लिखी

    एक कविता

    कि दिल्ली में भी है

    दुनिया के सबसे बड़े बैलून से भी ज़्यादा बड़ा

    एक दिल

    जहाँ एक दिन फिरा करते हैं ढेलों के भी दिन

    लेकिन अगले दिन वह भागा

    और फिर भागता ही रहा

    जब लड़की ने अपने प्रेमी से कहा-

    'सँभालकर उठाओ और रख दो इस बेचारे को

    गुड़गाँव के किसी खेत में

    या टिकट देकर चढ़ा दो छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस में

    और भूल जाओ

    उसी तरह जैसे राजधानी की सड़क पर हर रोज़

    हम भूल जाते हैं कोई- न-कोई

    दहशतनाक दुर्घटना'

    आदमी लोगों, सुनो!

    इस ढेले के भी हैं कुछ विचार

    ढेले को भी करनी है बाज़ार में ख़रीदारी

    इस कठिन समय में ढेले का सोचना है

    उसको भी निभानी है कोई भूमिका

    भाई, कोई है ?

    कोई सुनेगा ढेले का मूल्यवान प्रवचन

    कोई अखबार छापेगा

    लोकतंत्र और मनुष्यता के संकट पर

    ढेले के विचार?

    भाई, कोई है,

    जो उसे उठाये

    उस तरह जिस तरह नहीं उठाया जाता कोई ढेला?

    Más Menos
    4 m
  • O Mandir Ke Shankh, Ghantiyon | Ankit Kavyansh
    Aug 12 2024

    ओ मन्दिर के शंख, घण्टियों | अंकित काव्यांश


    ओ मन्दिर के शंख, घण्टियों तुम तो बहुत पास रहते हो,

    सच बतलाना क्या पत्थर का ही केवल ईश्वर रहता है?


    मुझे मिली अधिकांश

    प्रार्थनाएँ चीखों सँग सीढ़ी पर ही।

    अनगिन बार

    थूकती थीं वे हम सबकी इस पीढ़ी पर ही।


    ओ मन्दिर के पावन दीपक तुम तो बहुत ताप सहते हो,

    पता लगाना क्या वह ईश्वर भी इतनी मुश्किल सहता है?


    भजन उपेक्षित

    हो भी जाएं फिर भी रोज सुने जाएंगे।

    लेकिन चीखें

    सुनने वाला ध्यान कहाँ से हम लाएंगे?


    ओ मन्दिर के सुमन सुना है ईश्वर को पत्थर कहते हो!

    लेकिन मेरा मन जाने क्यों दुनिया को पत्थर कहता है?


    Más Menos
    3 m
  • Tum Aayin | Kedarnath Singh
    Aug 11 2024

    तुम आईं | केदारनाथ सिंह


    तुम आईं

    जैसे छीमियों में धीरे- धीरे

    आता है रस

    जैसे चलते-चलते एड़ी में

    काँटा जाए धँस

    तुम दिखीं

    जैसे कोई बच्चा

    सुन रहा हो कहानी

    तुम हँसी

    जैसे तट पर बजता हो पानी

    तुम हिलीं

    जैसे हिलती है पत्ती

    जैसे लालटेन के शीशे में

    काँपती हो बत्ती।

    तुमने छुआ

    जैसे धूप में धीरे धीरे

    उड़ता है भुआ

    और अन्त में

    जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को

    तुमने मुझे पकाया

    और इस तरह

    जैसे दाने अलगाए जाते हैं भूसे से

    तुमने मुझे खुद से अलगाया।


    Más Menos
    2 m
  • Raat Kati Din Tara Tara | Shiv Kumar Batalvi
    Aug 10 2024

    रात कटी गिन तारा तारा - शिव कुमार बटालवी

    अनुवाद: आकाश 'अर्श'

    रात कटी गिन तारा तारा

    हुआ है दिल का दर्द सहारा

    रात फुंका मिरा सीना ऐसा

    पार अर्श के गया शरारा

    आँखें हो गईं आँसू आँसू

    दिल का शीशा पारा-पारा

    अब तो मेरे दो ही साथी

    इक आह और इक आँसू खारा

    मैं बुझते दीपक का धुआँ हूँ

    कैसे करूँ तिरा रौशन द्वारा

    मरना चाहा मौत न आई

    मौत भी मुझ को दे गई लारा

    छोड़ न मेरी नब्ज़ मसीहा

    बाद में ग़म का कौन सहारा

    Más Menos
    2 m
  • Apne Purkhon Ke Liye | Vishwanath Prasad Tiwari
    Aug 9 2024

    अपने पुरखों के लिए | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी


    इसी मिट्टी में

    मिली हैं उनकी अस्थियाँ

    अँधेरी रातों में

    जो करते रहते थे भोर का आवाहन

    बेड़ियों में जकड़े हुए

    जो गुनगुनाते रहते थे आज़ादी के तराने

    माचिस की तीली थे वे

    चले गए एक लौ जलाकर

    थोड़ी सी आग

    जो चुराकर लाये थे वे जन्नत से

    हिमालय की सारी बर्फ

    और समुद्र का सारा पानी

    नहीं बुझा पा रहे हैं उसे

    लड़ते रहे, लड़ते रहे, लड़ते रहे

    वे मछुआरे

    जर्जर नौका की तरह

    समय की धार में डूब गए

    कैसे उन्होंने अपने पैरों को बना लिया हाथ

    और एक दिन परचम की तरह लहरा दिए उसे

    कैसे वे अकेले पड़ गए

    अपने ही बनाए सिंहासनों, संगीनों और बूटों के आगे

    और कैसे बह गए एक पतझर में गुमनाम

    जंगल की खामोशी तोड़ने के लिए

    उन्होंने ईजाद की थीं ध्वनियाँ

    और आँधी-तूफान में भी ज़िंदा रखने के लिए

    धरती में बोए थे शब्द

    अपनी खुरदरी भाग्यरेखाओं वाले

    काले हाथों से

    उन्होंने मिट॒टी में बसंत

    और बसंत में फूल और फूल में भरे थे रंग

    धधकाई थीं भट्ठियाँ

    चट्टानों को बनाया था अन्नदा

    किसी राजा का नहीं

    इतिहास है यह

    शरीर में धड़कते हुए खून का

    मेरे बच्चों

    युद्ध थे वे

    हमें छोड़ गए एक युद्ध में ।

    Más Menos
    3 m